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ईश्वर है या ईश्वर नहीं है ?

एक पक्ष कहता है की ईश्वर नही है और आस्तिक पक्ष कहता है की ईश्वर है | अगर ईश्वर नहीं है यही सत्य है तो नास्तिक और आस्तिक दोनों बराबर ही रहे क्यूंकि ईश्वर को मानने वालो की कोई हानि नहीं हुई परन्तु यदि ईश्वर है तो ईश्वर को मानने वाले पक्ष को तो परमात्मा की प्राप्ति हो सकती है पर ईश्वर को न मानने वाला तो इस रस से हमेशा अनजान ही रह जायेगा |
किसी वास्तु की नकारने के लिए भी उसकी विपक्ष की स्वीकृति आवश्यक है जैसे यदि हम कहे की अँधेरा है तो प्रकाश की गैर्मजुदगी ही अँधेरा है

यदि कोई मनुष्य जन्म से अंध है और आप उसे समझाए की नीला रंग कितना मन भवन है तो उसकी प्रतिक्रया क्या होगी

किसी वास्तु की प्राप्ति पर ही उसका निषेध किया जाता है | कोई यह क्यूँ नहीं कहता की इन्सान अंडा नहीं देता क्योंकि जो चाज होती ही नहीं

जो मनुष्य अंग्रेजी भाषा को मानता है तो वह उसे सिखने का अभ्यास कर सकत है | पड़ी करेगा तो उसको अंग्रेजी अ जाएगी पर जो मनुष्य अंग्रेजी भाषा को मंत ही नहीं तो वह उसे सिखने का अभ्यास ही क्यों करेगा | अब दोनों के पास एक तार आया की अमुक व्यक्ति बीमार है तो अंग्रेजी के जानकर ने पड़ा और जाकर देखा तो बात सच निकली परन्तु जिसने अंग्रेजी भाषा को माना ही नहीं तो तो वोह वहां नहीं पहुच पाया

ऐसे ही जो इश्वर प्रप्ति में लगे हिन् उनमे सामान्य मनुष्यों से विशेषत दिखती है उनके संग से, भाषण से शांति मिलती ही केवल मनुष्यों को ही नहीं प्रत्युत पशु पक्षी अदि को भी उनसे शांति मिलती है यह बात अगर कोई चाहे तो इसी जीवन में देख सकता है अथ जिन्हें ईश्वर प्राप्ति हो गयी हो उनकी विलक्षणता आ गयी यदि इश्वर है ही नहीं तो यह विलक्षणता कहाँ से आई|

हर मनुष्य अपने में एक कमी का अप्पोर्नता का अनुभव करता है अगर इस अप्पोर्नता की पूर्ती की कोई चीज नहीं होती तो मनुष्य को अप्पोर्द्ता का अनुभव होता ही नहीं जैसे मनुष्य को भूक लगती है तो सिद्ध होता है की कोई खाद्य वास्तु है प्यास लगती है तो सिद्ध होता है की कोई पेय वस्तु है ऐसे ही मनुष्य को अप्पोर्द्ता का अनुभव होता है तो यह भी सिद्ध है की कोई पूर्द तत्त्व है उस पूर्ण तत्व को ईश्वर कहते हैं

ऐसे ही जब वास्तु होती है उसी को प्राप्त करने की इक्षा होती है जो वस्तु नहीं होती उसको प्राप्त करने की इचा नहीं होती जैसे किसी के मन में यह इक्चा नहीं होती की मैं आकाश के फल खाऊन या आकाश के फुल सुन्ग्हू क्योंकि आकाश में फल फूल लगते ही नहीं मनुष्य की तो यही इक्षअ रहती है की मैं सदा जीता रहूँ कभी न मरुँ सब जान लूँ कोई अज्ञान न रहे सदा सुखी रहूँ कभी दुखी न रहूँ सदा जीता रहूँ यह चित की इक्षा है सब जान लूँ यह सैट की इक्षा है और सदा सुखी रहूँ यह आनंद की इक्षा है इससे भी सिद्ध हुआ की ऐसा कोई सत्चितानंद स्वरोप्प तत्व है जिसको प्राप्त करना मनुष्य चाहता है

कोई भी मनुष्य अपने से किसी को बड़ा मानता है तो उसने वास्तव में इश्वर को स्वीकार कर लिया कुंकी जहाँ बदप्पान्न की परंपरा समाप्त होती है वहीँ इश्वर है पूर्वेषा मापी गुरुह काले न नव चाचे डट पतंजल योग दर्शन १ |२६ कोई व्यक्ति होता है तो उसका पिया होता है और उसके पिता का भी कोई पिता होता है यह परंपरा जहाँ समाप्त होती है उसका नाम ईश्वर है पितासि लोकस्य चराचरस्य ११|४३ कोई बलवान होता है तो उससे भी कोई अदेहिक बलवान होता है यह बलवत्ता की अवधी जहाँ समाप्त होती है उसका नाम इश्वर है क्योंकि उस सामान कोई बक्ल्वान नहीं तात्पर्य यह है की बल बूढी विद्या योग्यता ऐश्वर्य शोभा आदि गुणों की सीमा जहाँ समाप्त होती है वही एश्वारे है क्यूंकि उसके समन कोई नहीं है न त्व तसमो सत्य भी अदिख कुतो अन्य ११\४६

वस्तव में ईश्वर माने का श्रद्धा का विषय है विचार का नहीं क्यूंकि जहाँ तक जाने की सीमा है वहीँ तक विचार संभव है ओपर जो सीम ही उसपर विचार कैसे करिएँ वो तो मन्ना ही पड़ेगा और जिज्ञासा उसी विषय में होती ही जिसके विषय में कुछ जानते हैं और कुछ नही जानते पर जिसके विषय में हम कुछ नहीं जानते उसके विषय में न ही जिज्ञासा होती ही और न ही विचार उसको तो हम मने य न मने इसमें हम स्वतंत्र हैं

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